दाहेज दहेज की आग
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नारी रोज जलती है,
दहेज की आग में,
समाज की ऊंची चारदीवारी के भीतर
गाँव से शहर तक पाट दी गयी है
संस्कारों का ईंट,
खिड़की खुली है साँस लेने भर
तुम्हारे संस्कारों के डर से
लगा देती है पर्दा !!
घावों से छलनी शरीर पर
बाँध लेती है, आँखों पर पट्टियां
कितनी अजीब बात है !!
आग में झुलसे शरीर को
फेंक दिए जाते श्मशान के अंधेरों में
सारी सच्चाईयाँ
गड़ जाती है पैर के तलवों पर
नारी रोज जलती है !
दहेज की आग पर !!
© नवीन किशोर महतो
18 फरवरी 2020
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