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जुलाई, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

जंगली लोग

जंगली मामूली लोग हैं आग और पानी जैसा  मगर सोचो तो  इतिहास के पहियों को आगे की ओर ठेलने वाले हैं  इतिहास की क़िताबों में इनका ज़िक्र नहीं है  सोचो तो कितना अजीब है जो जानवरों का रक्षा करते हैं !!  जंगलों को बचाया करते हैं !!    अक्सर शहरी लोग  जंगली कहकर पुकारते हैं !!  "जंगली " शब्द का अर्थ व्यंग्यात्मक है !!  इनकी भाषा समझ से परे है  जिसका व्याकरण, शब्दकोश   लिखा नहीं गया  शिक्षित लोगों से !!  तुमसे चिढ़ है !  क्योंकि तुम्हारे वेशभूषा में  तस्कर जंगल आया करते हैं !! ©नवीन किशोर महतो  फरवरी 2/2/2020

दहेज की आग

दाहेज दहेज की आग   _________________________________________ नारी रोज जलती है, दहेज की आग में,   समाज की ऊंची चारदीवारी के भीतर  गाँव से शहर तक पाट दी गयी है  संस्कारों का ईंट, खिड़की खुली है साँस लेने भर  तुम्हारे संस्कारों के डर से  लगा देती है पर्दा !!  घावों से छलनी शरीर पर  बाँध लेती है, आँखों पर पट्टियां  कितनी अजीब बात है !!  आग में झुलसे शरीर को  फेंक दिए जाते श्मशान के अंधेरों में  सारी सच्चाईयाँ  गड़ जाती है पैर के तलवों पर  नारी रोज जलती है !  दहेज की आग पर !!  © नवीन किशोर महतो      18 फरवरी 2020

गुल्लक

गुल्लक  __________________________________________ छोटा था तो क्या हुआ सारे सपने कैद थे !!  मिट्टी के गुल्लक में  चावानी आठानी के पैसों में  वो बच्चा रोज गिनता था !!  उसके भरने के दिन को  कान से सटाकर सुनता था !!  क्षण छन की आवाज  उसके सारे सपने थिरकने लगते थे !!  गुल्लक के छोटे दरवाजे से निकलता था  दुध, गुड़िया और कपड़े  उसकी सोयी बहन के लिए !!  जिसे पानी पीला कर अक्सर सुला देता था  माँ के काम में जाने के बाद !!  फिर निकालता था    छोटे दरवाजे से  चावल, दाल और रोटियाँ  अपने माता पिता के लिए !!  अपने लिए एक कुदाल   एक अनजान शहर वो बच्चा रोज गिनता था !!    उसके भरने के दिन  !  ©नवीन किशोर महतो      14 मई 2020

पथिक

पथिक  ______________________________________ लौट आना गाँव  सुरक्षित होकर निरोग लौट आना  पत्नी पथ पखारे देखती है  राह लौटने का !!  छलकते आँसुओं की असहनीय पीड़ा  पोंछ लेती है साड़ी की चांवर से  अदहन देर से देती है, भात गिला हो जाता !!  लेकिन फेंकती नहीं है  तुम लौट आना !! जैसे लौट आता है  पंछी तूफानों से लड़कर  शाम होने तक अपना घोंसला !!  तुम भी लौट आना  करोना से बचकर घर अपना !!  तुम लौट आना  कुछ बैठे हैं  समाज के पहरेदार  जिनसे गाँव की बेटियाँ सुरक्षित नहीं हैं !!  गाँव के रक्षा की बात करते हैं !!  तुम देखोगे गाँव की तानाशाही  नलकूप में ताला लटका होगा !!  गाँव का रास्ता बंद मिलेगा  जो रोक लेगा राह तुम्हारी  उस सन्नाटे के गहरेपन में !!  अगर थक गए होगे !!  चलते चलते आराम कर लेना !!     गाँव लौट आना !!  © नवीन किशोर महतो         22 मार्च 2020           

डोर

डोर  _________________________________________   वादों का  डोर टूट गया !! अब निहारता हुँ आसमाँ पर तेरे काले वादे बादल बन उड़ते हैं, बरसने को !!  सुखी बंजर जमीन पर  फिर कोई वादा होगा ??  झूठा वादा होगा ??  सोचता हुँ ?? ऐसे हरियाली के वादे  अनगिनत वादे रोज टूटते होंगे !!.  पृथ्वी के हर कोने पर  और ऐसे ही निहारता होगा !!  आसमाँ को पीड़ित इंसान  नास्तिक बनकर  ईश्वर को नकार कर !!  धोखा देने सीख जाता होगा !! इस तरह सच्चे प्रेमी  दुनिया में खत्म हो रहे !!  गौरेया की तरह  एक दिन लुप्त प्राणी के श्रेणी में  होंगे सच्चे प्रेमी !!  टाँगा जाएगा फोटो फ्रेम  किसी अजायबघर में !!  इंसान का अगली पीढ़ी  टिकट लेकर देखने आएगा !!  प्रेमियों का इतिहास   इनकी प्रमुख गलतियाँ !!  © नवीन किशोर महतो        29 फरवरी 208         

एक फौजी

एक फौजी  __________________________________________ एक फौजी लौट रहा है चितकबरे पोशाक में  सालों बाद गाँव फिर से यादों के बड़े बैग में है !!  बुढ़ी माँ की एक पुरानी तस्वीर पिता का हल ओर जुआंट भूरा ओर एक काला बैल  सोंधी मिट्टी की खुशबु !!  बंद है घर का कुआं प्लास्टिक के बोतल में ट्रेन की छुक छुक आवाज !!  सहसा याद दिलाता गाँव का खेल मुस्कराते निहार रहा अपना बैग एक फौजी लौट रहा है !!  चितकबरे पोशाक में  सालों बाद अपने गाँव फिर से  गोली जो लगी थी पैर में   वो ज़ख्म भरा नहीं है !!  सोचता है कैसे छिपाना है  हर झूठ जो माँ पकड़ लेती है !!  अगर लंगड़ाते देखती है   तो उसे क्या बताना है ?  गिर गया था, नहीं  चोट लगी थी, नहीं नहीं  मोच आ गया था !!  इसी आपा धापी भीड़ में  सोचते सोचते  एक फौजी लौट रहा है !!  चितकबरे पोशाक में  सालों बाद अपने गाँव फिर से !!  © नवीन किशोर महतो   13 मई 2020

कैकटस के फुल

कैक्टश के फुल  __________________________________________  मन की रेत पर  कोई गुजरा अभी अभी  इन्द्रधनुष बना मन के आकाश में  तो दुर तक बनते गए,  स्मृतियों के सुंदर फुल !!  लौटते आंसुओं से डब - डबाए  क़दमों के निशान !!   खिलखिलाती आँखों में  फिर गिली होने लगी है रेत  रेगिस्तान की,  मृगतृष्णा की तलाश में !!  एक प्यासा मुसाफिर  बोया था रंग बिरंगे फुल  सजाये थे कई सपने !!  सुखी रेत ओर तेज धुप में  उगा कैकटश का फुल   तो वो निहारने लगा !!     नुकीले काँटों को    मजे से खाते ऊँठ को    डब डबाये आँखों से !!  © नवीन किशोर महतो         7 मई 2020      राँची ( झारखंड)      

हंसिये का गीत

हंसिये का गीत  ----------------------------------------------------------------- पहाड़ की तलहटी में  पीली धान के खेतों से सर सर सर की आवाज आती है ll गाँव की महिलाएँ गाती हैं ll हंसिये का गीत !!  कभी आँखों ने समझी !!  कभी हाथों ने समझी !!  कभी पैरों ने समझी !!  इसका कठिन नृत्य !!  हवा कैसी बह रही,  धूप कितनी तेज है !!   गाँव की महिलाएँ ध्यान नहीं देती !!  अपने धुन से सजाती  पग पग संगीत भरा  हंसिये के गीत से  खेत का हर कोना  फिर क्या होता  यहीं पर सब हँसती  सब गान होता शेष  हंसिये का गीत !!  सर सर की आवाज !!  © नवीन किशोर महतो      29 जनवरी 2020     राँची  ( झारखंड )   

मनोभाव

शीर्षक - मनोभाव  __________________________________________            क्या हुआ ?      लिखो जो मन में भाव है       कविता तुम नहीं लिखते       कविताएँ तुम्हें लिखती है !!    कविताएँ बहुत चालाक होती हैं            गौर से देखती है !!            वर्षों तलाशती है !!         क्या वो बच्चा तुम हो ?        इतने विचलित क्यों हो          मन के धरातल पर  आंसुओ के भीषण वर्षा में अंकुरित होती है !!      कई सुन्दर, मिठी, कविताएँ         कोयल की कुक सी !!           मयूर के पंख सी !!    कुछ कविताएँ बहुत विषैली          मदार के दूध सी !!    जिससे फोड़ा जा सकता है      ध्रुत, कपटी की आँखें ??    कुछ कविताएँ बारूद से भरी     जिससे तोड़ा जा सकता है         गुलामी का दीवार !!   कुछ कविताएँ वेदना से भरी    जिसे प्रेमी गुनगुना सकता है !!             क्या हुआ ??      लिखो जो मन में भाव है !!  © नवीन किशोर महतो       9 जुलाई 2020     राँची ( झारखंड )                                                   

ताप

तुम गलत हो !!  वहाँ आग लगाओ  जहाँ लोग कच्चे खा रहे !!  अधपका चावल,  धुप में सेंक रहे रोटी !!  पी रहे अपने शरीर का खारा पानी !  मुझे पता है   खारे पानी से प्यास नहीं मिटती !!  लेकिन धरती का आधा पानी खारा है !!   जिसे गरीब, बेबस,  असहाय लोग पीते हैं !!  जिनके पेट पर भौका जाता हज़ारों छुरियाँ     लेकिन ज़िन्दा हैं सदियों से     रहेंगे सदियों तक !!  तुम्हारी आग में कितनी ताप है ??   क्या रोटी पक सकता है ?  अगर हाँ है !!   तो लगा दो आग  सफेद बर्फ से ढंके लोगों पर  जो हिमालय की तरह विशाल होते जा रहे हैं !!  हे भागीरथ,   ढहा दो बर्फ में छिपे कीड़ों को   तुम्हारी ताप से बिलबिलाते मरे      बहा दो एक नयी गंगा !!    लगा दो एक प्रचंड आग !!  ©नवीन किशोर महतो       2 जुलाई 2020       राँची (झारखंड )